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सर सय्यद अहमद ख़ान : हमारे संस्थापक (मुहम्मद सलमान)

जाॅन एफ0 केनेडी के अनुसार मनुष्य मृत हो सकता है, देश एवम् सभ्यताओं का उत्थानोपतन हो सकता है, किन्तु ‘विचार‘ सदैव अमर रहते हैं। केनेडी की यह सारगर्भित उक्ति सर सय्यद अहमद खाँ और उनके उस दृष्टीकोण, यत्नों एवं संघर्ष की सटीक प्रस्तावना है जिसको हम "अलीगढ़ आंदोलन" के नाम से जानते हैं। सर सय्यद अहमद खाँ एक महान समाजसुधारक, शिक्षाविद एवं विद्वान थे। उनका जन्म 17 अक्टूबर 1817 ई0 को देश की राजधानी दिल्ली में हुआ। 

सर सय्यद का मूल नाम सय्यद अहमद था, ‘सर‘ और ‘ख़ान‘ की उपाधि उन्हें अंग्रेजी सरकार द्वारा सम्मान में दी गई थीं। पिता सय्यद मुहम्मद मुत्तकी ने जीवनभर मुग़ल दरबार में अपनी सेवाएँ प्रदान की। कहते है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर एवं प्रथम शिक्षक माँ होती है. कुछ ऐसा ही सर सय्यद के साथ भी हुआ। माता अज़ीजुन्निसा ने (जो एक माल्यवंत एवं बुधिल स्त्री थीं) सर सय्यद की आरम्भिक शिक्षा का बीड़ा उठाया और उन्हें आदर्श और चरित्र के उस क्षितिज पर सुशोभित किया कि वही चरित्र और आदर्श आज भी अलीगढ़ के चमन में हर बुलबुल की पेशानी से नूर की मानिन्द टपकता है। बाद में सर सय्यद ने अरबी, फारसी, गणित तथा ज्यामिती का अध्य्यन किया। 1845 ई0 में बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् सर सय्यद ने ‘सय्यदुल अख़बार‘ नामक समाचार पत्र के सम्पादन का कार्यभार सम्भाला। यह अख़बार उनके बड़े भाई सय्यद मुहम्मद ने 1837 ई0 में शुरू किया था। 13 जनवरी 1855 को सर सय्यद का स्थानांतरण 'सदर-ए-अमीन' के रूप में उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में हो गया। इसके अतिरिक्त वह उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जनपद में 'सदर-उस-सुदूर' के पद पर भी शोभायमान रहे। मुरादाबाद में उन्होंने सबसे पहले एक मदरसे की नींव डाली।

1857 ई0 में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई हुई जिसके पश्चात् भारतीय मुसलमानों को दुनिया के समक्ष विद्रोही के रूप में प्रस्तुत किया गया। अंग्रेज़ी सरकार द्वारा मुसलमानों को अनेक यातनाएँ दी गयीं तथा उन्हें प्रताड़ित किया गया। मसलमानों की इस धूमिल छवि को सुधारने के लिए उन्होंने 'असबाब-ए-बगावते हिन्द' नामक पुस्तक लिखी। अंग्रेजों तथा मुसलमानों के दरमियानी ख़ला की भरपाई के लिए उन्होंने 'रिसाला-ए-ख़ैर ख़्वाने मुसलमान' आरम्भ किया।

कहा जाता है कि मनुष्य इस सृष्टि का सबसे असंतुष्ट प्राणी है तथा यह असंतुष्टी मानव का विशेष गुण है। इस बात को अल्लामा इक़बाल ने प्रोत्साहन युक्त शब्दों में इस प्रकार कहा हैः

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं 
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी है।

अपने इस इश्क को गन्तव्य तक पहुचाने के लिए सर सय्यद सितारों से भी आगे जाने का होंसला रखते थे जिसके तहत आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अध्य्यन एवम् अवलोकन हेतु 1869 ई0 में उन्होंने लंदन की ओर प्रस्थान किया। इसी दौरान सर सय्यद ने लंदन में सर विलियम मूर की किताब 'लाइफ आॅफ मुहम्मद' पढ़ी जिसमें इस्लाम के अन्तिम संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल0) पर मूर ने कुछ आपत्ति जनक बातें लिखी थीं। अपनी जवाबी पुस्तक "खुतबात-ए-अहमदिया" द्वारा सर सय्यद ने उन बातों को निराधार साबित कर दिया। लंदन से वापस लौटने पर उन्होंने मुसलमानों के शैक्षिक उद्धार हेतु आॅक्सफोर्ड तथा केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर शिक्षण संस्थान खोलने की मंशा बनाई जिसका नतीजा 1875 ई0 में मुहम्मदन एंग्लो आॅरिएन्टल काॅलेज के रूप में हमारे सामने आया जो 1920 में भारतीय संसद द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में केन्द्रिय विश्वविद्यालय घोषित किया गया।

1870 ई0 में सर सय्यद ने ‘तहज़ीबुल अख़लाक‘ नामक पत्रिका शुरू की। इस पत्रिका ने मुस्लिम समाज को रुढ़ीवादिता से निकलकर आधुनिकता की ओर आमंत्रित किया। यह पत्रिका अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के संरक्षण में आज भी प्रकाशित की जाती है। अपने मिशन के दौरान सर सय्यद को अनेक प्रहारों से गुज़रना पड़ा। अधुनिकता के बदले उन्हें कुफ्र के फतवों से नवाज़ा गया, तरह-तरह के अपमान उन्हें सहने पड़े किन्तु वह अपने पथ पर अडिग रहे, यह सोचते हुए किः

फ़ानूस बनके जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे 
वो शम्मा क्या बुझे जिसे रोशन ख़ुदा करे।

1886 ई0 में सर सय्यद ने मुहम्मदन एजुकेशनल काॅन्फ्रेन्स की स्थापना की जिसने देश के मुसलमानों की दशा सुधारने में अहम किरदार निभाया। देश के प्रशासन में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ाने हेतु उन्होंने "मुहम्मदन सिविल सर्विस फण्ड एसोसिएशन" की आधारशिला रखी जिसका मुख्य कार्य मुस्लिम छात्रों को प्रशासनिक सेवाओं में जाने के लिए प्रोत्सहित करना तथा उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करना था। 1866 ई0 में "अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गज़ेट" आरम्भ किया। इसके अतिरिक्त सर सय्यद ने असंख्य किताबें मानव जाति के लाभार्थ लिखीं जिनमें असारूस सनादीद, आईने अकबरी (सम्पादित), कलामातुल हक, तारीखें सरकाशी-ए-ज़िला बिजनौर, सिलसिलातुल मुल्क, तारीख़े फिरोज़शाही (सम्पादित) आदि प्रसिद्ध हैं।

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सर सय्यद और उनके साथियों का योगदान अभूतपूर्व है। गाँधी जी के स्वदेशी आंदोलन की चिंगारी अलीगढ़ की वादियों में ही भलीभाँति पनपी और पूरे भारत में आग की तरह फैल गई जिसने अंगेजों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

अंततः युगनिर्माता सर सय्यद अहमद खाँ के जीवन एवं व्यक्तित्व की छवि काग़ज़ के इस छोटे से टुकड़े पर उतारना अत्यन्त कठिन कार्य है। सर सय्यद जैसा देशप्रेमी और समाज सुधारक भविष्य में पैदा होना असम्भव है। आधुनिक शिक्षक में उनके अभूतपूर्व योगदान को देखते हुए सिर्फ इतना कहा जा सकता हैः

हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है 
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदवर पैदा।

’मुहम्मद सलमान एम. ए, अरबी के छात्र हैं। वह इस पत्रिका के उर्दू सम्पादक हैं।
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