कुमार गंधर्व : संगीत में विद्रोही (मुहम्मद सारिम अशरफ़ी )
मनुष्य उन्मुक्त है प्रकाश की तरह! इतिहास साक्षी है कि जब भी मनुष्य से उसकी स्वायत्तता या उन्मुक्तता के हरण के प्रयास किए गए हैं, एक विशाल विद्रोह ने ब्रह्मांड को स्तब्ध किया है, जिसका प्रतिफल हमारे समक्ष अशफाकउल्ला खां, भगत सिंह सरीखी शक्लों में आता रहा है। विद्रोह या क्रांति की महत्ता पर बल देते हुए शायर- ए-मशरिक अल्लामा इकबाल कहते हैं- ‘तेरी खुदी में अगर इंकलाब हो पैदा/ अजब नहीं के ये चार सू बदल जाए।’
मनुष्य अपनी उन्मुक्त भावनाओं की अभिव्यक्ति विभिन्न ललित और शिल्प कलाओं से करता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत भी उन्हीं में से एक है। कई बार सोचा कि क्या शास्त्रीय संगीत की पद्धति, जो खुद उन्मुक्त भावनाओं की अभिव्यक्ति है, किसी के लिए बंधनों का पर्याय बन सकती है। अगर हां, तो इससे विद्रोह करने का साहस कौन कर सकता है? उत्तर मिला- आस्ट्रिया के मोजार्ट से मद्रास के मोजार्ट तक ऐसा कोई संगीतकार नहीं, जो संगीत पद्धति के बंधनों से परे सोच पाए, सिवाय ‘कुमार गंधर्व’ के।
कुमार गंधर्व का मानना था कि जो किसी एक घराने की घिसी-पिटी परंपरा को सीखे और उसके बंधनों से बाहर जाकर कुछ नया सृजन न कर सके तो वह कलाकार नहीं, नकलची है। परंपराएं उसे जड़ता प्रदान करती हैं, जो उन्मुक्त न हो। लेकिन एक प्रयोगधर्मी कलाकार के लिए यही परंपराएं एक इंकलाब का सबब बनती हैं। कुमार गंधर्व अभूतपूर्व प्रयोगधर्मी प्रतिभा के इकलौते अलंबरदार थे। उनका पहला रिकार्ड, यानी संगीत अलबम नौ वर्ष की अल्पायु में आया। कुमार गंधर्व का संगीतमय विवेक ईश्वर प्रदत्त था। बिना किसी संगीत शिक्षा के वे सात साल की उम्र में बड़े-बड़े दिग्गजों को सिर्फ एक बार सुन कर हूबहू उनकी तरह गाने का माद्दा रखते थे।
कोई आरोह, अवरोह और मुरकी उनसे न छूटती थी। बाद में विभिन्न गुरुओं ने बालक कुमार को पहचाना और उसमें निहित संगीतपुंज की रश्मियों को संसार भर में फैलाया। उनके गुरुओं की एक विस्तृत सूची है, जो शायद बताती है कि वे घराना परंपरा के कायल नहीं थे। तबलावादक उस्ताद महबूब अली खां, ‘कुमार बाबा’ कह कर पुकारने वाली बेगम अख्तर, पंडित देवधर, उस्ताद वाजिद हुसैन और उस्ताद सिंदे खां उन्हें बहुत प्रिय थे। कुमार गंधर्व हर तरह के संगीत का सम्मान करते थे। शास्त्रीय संगीत, सूफी संगीत, लोक संगीत आदि को वे एक ही वृक्ष की शाखाएं कहते थे। वे आधुनिक फिल्मी संगीत के कड़े आलोचक थे, क्योंकि फिल्मी संगीत में आत्मीयता का अभाव है। इसमें सांसारिक माया और ऐश्वर्य का अंधानुकरण है। यहां तक कि वे देश के बाहर जाकर अपनी प्रस्तुति देना इसलिए पसंद नहीं करते थे कि कहीं लोग उन्हें धन का लोभी न समझ बैठें। वे कहते थे कि जिसे संगीत सुनना है, वह हिंदुस्तान आए और सुने!
कुमार गंधर्व के प्रयोगधर्मी और इंकलाबी विवेक का बोध उनके रचे अनेक रागों से होता है। उनके लिए तमाम भारतीयों के स्नेह के रूप में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। यह हमारे लोकतंत्र में दिए जाने वाले सबसे अहम सम्मानों में से एक है। लेकिन मुझे कुमार गंधर्व के लिए यह छोटा नजर आता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि जब महान संगीतकार उस्ताद फैयाज अली खां ने पहली बार ग्यारह साल के कुमार गंधर्व को सुना था तो वे अपने आप कह उठे थे कि ‘बेटा! अगर फैयाज खां जागीरदार होता तो आज सारी जागीर तुझ पर लुटा देता!’
*मुहम्मद सारिम अशरफ़ी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इस्लामिक स्टडीज़ ऑनर्स के छात्र हैं।
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