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तीन ग़ज़लें (क़मर, मोहसिन, अज़ीज़)

          
 (प्रथम)

यह तेरे भाग्य की विडम्बना है
या तेरे अपने कर्मो का परिणाम
वो शोर्ये जो चरम पे था कभी
युगों से है अब गुमनाम
तेरा चरित्र ही तेरा ब्रह्मास्त्र था
यही था तेरा मान, सम्मान,
समय संग चरित्रहीनता ने
ले लिया है अब स्थान
भाग्य भरोसे जीता है तू
कर्म से है बिलकुल अंजान
उदासीन हुआ है जीवन तेरा
बाक़ी न रही कोई पहचान
समय के चक्र संग तू भी चल
उठा धनुष और तीर को तान
भेद दे लक्ष्य को आगे बढ़कर
यही है मुस्लिम की पहचान।
समय संग चलता है जो प्यारे
वही विजयी है, वही सुल्तान
कथन से हौवे अब कुछ नांही
करम से होवे है पहचान।
अज़हर क़मर (अलीग)
एम.फिल. शोधछात्र (मैनेजमेंट)
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी
हैदराबाद।


(द्वितीय)

मैं कितना तन्हामैं कितना उदास
सफल  हो पाया मेरा कोई प्रयास
भविष्य के गर्भ में क्या है कौन जाने
सोचता रहता हूँ मैं क्यों अनायास
  
विचलित नहीं मैं जीवन की ठोकरों से
हर पल नई उम्मीद है हर पल नई आस
कल भी हवाओं में उड़ने की इच्छा थी
अब भी मन में है एक नया विश्वास
पंछी तूं उड़ता रह चोंच में दाने लेकर
कोई तो होगा भूखा किसी को होगी प्यास
संघर्ष बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं
आखिर राम ने भी तो किया था वनवास
धरती से उठ पर दे अपने विचारों को
पर्वत क्या है मोहसिन छूयेगा तूं आकास 
मरग़ूब मोहसिन (अलीग)
पूर्व छात्र, अभियांत्रिकी एवम् प्रोद्योगिकी संकाय
अमुवि, अलीगढ़।


(तृतीय)


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