प्यारी बूँदें (मुहम्मद नवेद अशरफ़ी)
डबडबाई स्याह रातें,
पुरकैफ़ हैं, मगर इतनी भी नहीं....
इक सुकून है, अच्छा ज़रा भी नहीं...!
ख़र्च हो रहे हैं हम, रत्ती-रत्ती, तिल-तिल भर..
मोबाइल टैरिफ़ की तरह,
जिसकी अपनी शर्तें होती हैं, ज़िंदगी की तरह !!
कल अफ़सुर्दा शबनम थी..
और आज ये ठण्डी बूँदे !!!
जनवरी की जकड़न में,
पछुआ की चादर ओढ़े,
फिर उन ज़ख़्मों को कुरेदती है,
मेरे ज़र्द चहरे पे फिर
जनवरी की जकड़न में,
पछुआ की चादर ओढ़े,
फिर उन ज़ख़्मों को कुरेदती है,
मेरे ज़र्द चहरे पे फिर
वही नुकूश उभर आते हैं,
अपनी कमज़र्फी के....!!!
काश वो पुरवा होती, गुज़िश्ता अप्रैल की,
वो अपनापन, वो निराली बाते
अपनी कमज़र्फी के....!!!
काश वो पुरवा होती, गुज़िश्ता अप्रैल की,
वो अपनापन, वो निराली बाते
और वो लगाव,
जैसे जेठ की दुपहरी में,
ठण्डे गिलास पर वही ठण्डी
मगर "प्यारी बूँदे" !!!
जैसे जेठ की दुपहरी में,
ठण्डे गिलास पर वही ठण्डी
मगर "प्यारी बूँदे" !!!
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*मुहम्मद नवेद अशरफ़ी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लोकप्रशासन (स्नातकोत्तर) के छात्र हैं।
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